आज धर्म की परिभाषा के सम्बन्ध में व्यापक स्तर से भ्रान्ति उत्पन्न कर दी गयी है।

धर्म के शाब्दिक अर्थ के आधार पर मानवता और “नित्यकर्म” को ही सर्वोपरि धर्म मानकर सनातन परम्परा में धर्म की व्यापक व्याख्या को कुण्ठित कर नयी-नयी व्याख्या करने में लोग लग गये हैं। इसे हमें समझने की आवश्यकता है।

वास्तव में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है- कुछ स्थानों पर वह शाब्दिक है तथा कुछ स्थानों पर पारिभाषिक है।

जैसे मनु ने जहाँ पर दशकं धर्मलक्षणम् कहा है, वहाँ वह शाब्दिक अर्थ में है।

लेकिन वैशेषिक सूत्र में जो यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः अर्थात् जिससे लौकिक एवं अलौकिक उन्नति हो, कहा गया है, वहाँ वह पारिभाषिक है।

दैनिक भास्कर में प्रकाशित आलेख
सनातन धर्म तो मानवता के धरातल पर आरम्भ ही होता है।

वास्तव में मनुस्मृति में धर्म के जो दश लक्षण- धीरता, क्षमा, संयम, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रिय-दमन, बुद्धि से काम लेना, विद्या-ग्रहण करना, सत्य बोलना, क्रोध नहीं करना बताये गये हैं, वे पारिभाषिक धर्म के आलोक में धर्म नहीं है। ये ऐसे आचार हैं, जिनका पालन अनिवार्य है। इनका पालन नहीं करने से सनातन धर्म में पाप माना गया है।

इन कर्मों को “नित्यकर्म” के रूप में रखा गया है, जिन्हें न करने से वह व्यक्ति प्रायश्चित्त का भागी बनता है। स्पष्ट कहा गया है कि अकरणे प्रत्यवायनिमित्तम् नित्यं कर्म। मानवता, जिसे आज सबसे बड़ा धर्म माना गया है, वह भी धर्म न होकर पारिभाषिक नित्यकर्म है, एक आचार मात्र है। इसे पहचानने के लिए हमें यह देखना चाहिए कि जिन कार्यों के नहीं करने पर पाप कहा गया है, वे नित्यकर्म हैं, आचार हैं, वे पारिभाषिक धर्म नहीं हैं।

उदाहरण के लिए माता-पिता की सेवा करना, दूसरे को कष्ट न देना, सामने में आये प्यासे को पानी पिलाना, सामने आये भूखे को भोजन कराना- ये सब तो सनातन धर्म में अनिवार्य माने गये हैं। यदि नहीं करते हैं तो पाप होगा।

लेकिन यदि कोई भूखा-प्यासा सामने नहीं है- उसके लिए आप अन्न-जल की व्यवस्था कर देते हैं, तो वह इष्टापूर्त के अन्तर्गत पूर्त है, पारिभाषिक धर्म है और इनके पालन करने से आप जहाँ हैं, वहाँ से आगे की ओर बढेंगे। यदि कोई व्यक्ति यह समझते हों कि हमें माता-पिता की सेवा करने से हमारी उन्नति होगी तो भूल है, हम केवल माता-पिता की सेवा नहीं करने के पाप से हम बचे रहेंगे, प्राचश्चित्त के भागी नहीं होंगे।

दरअसल, आप कल्पना कीजिए कि एक दूसरे की विपरीत दिशा में आपके आगे से तथा पीछे से दो बल लगे हुए हैं। पाप पीछे की ओर से खींच रहा है और धर्म आगे की ओर बढ़ा रहा है। पाप को निर्बल करना है और धर्म को सबल करना है।

इष्ट एवं पूर्त

यहीं पर इष्टापूर्त की व्याख्या की गयी है, जिसमें दो शब्द हैं- इष्ट एवं पूर्त। इष्ट का अर्थ है- अग्निहोत्र, तप, सत्य, वेदों का पालन, अतिथि-सत्कार और वैश्वदेव। पूर्त का अर्थ है- परोपकार के लिए कुआँ, तालाब, मन्दिर, अन्नक्षेत्र (सदावर्त) आदि का निर्माण करना तथा उसे चलाना।

यहाँ पहला “इष्ट” आचार है, नित्यकर्म है, पाप को निर्बल बनाता है, इसलिए अनिवार्य है।

दूसरा “पूर्त” धर्म को सबल बनाता है। इष्ट आदि आचार का पालन करने से पाप निर्बल होगा तथा पूर्त, दान, पूजा, जप, हवन, यज्ञ आदि करने से धर्मवृद्धि होगी और हम उन्नति के मार्ग पर बढते जायेंगे।

इस सन्दर्भ में “ब्राह्मण्य” शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका सम्बन्ध वर्ण से कतई नहीं है। ब्राह्मण्य शब्द के द्वारा प्रत्येक मनुष्य के लिए ऐसी स्थिति की कल्पना की गयी है, जहाँ वह कोई पापकर्म नहीं करता हो, पीछे की ओर ले जानेवाला कोई बल उसपर नहीं लग रहा हो।

ब्राह्मण्य का क्या अर्थ है?

इसलिए मदिरापान, हत्या, चोरी, भ्रूणगत्या आदि के सन्दर्भ में ब्राह्मण्यादेव हीयते अर्थात् उसका ब्राह्मण्य ही समाप्त हो जाता है, ऐसा कहा गया है। ऐसे सन्दर्भों को वर्ण-विभाजन के आलोक में देखना सर्वथा अनुचित है। इसी ब्राह्मण्य की अवस्था में पहुँचकर यदि कोई व्यक्ति आगे की ओर बढानेवाला कार्य करता है तो सनातन धर्म की परिभाषा में धार्मिक है।

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