फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के दिन महाशिवरात्रि मनायी जाती है।

नारद-संहिता के अनुसार दिस दिन आधी रात में चतुर्दशी तिथि रहे, उसी दिन शिवरात्रि का व्रत होना चाहिए।

लेकिन हेमाद्रि (1260 ई. के आसपास) ने अपने ग्रन्थ चतुर्वर्गचिन्तामणि में माना है कि सूर्यास्त के समय जिस दिन चतुर्दशी तिथि रहे उस दिन व्रत कर पूजा करनी चाहिए।  

शिवरात्रि पर्व पर प्रकाशित आलेख
शिवरात्रि पर्व पर विशेष

शिवरात्रि के सम्बन्ध में पुराणों में प्रसिद्ध मान्यता है कि भगवान् शिव का शिवलिंग के रूप में पूजा सबसे पहले इसी दिन ब्रह्मा और विष्णु के द्वारा की गयी थी। इसी दिन उनके शिवलिंग के स्वरूप की उत्पत्ति हुई थी। अतः शिव-पूजा में इस दिन का सर्वाधिक महत्त्व है तथा यह प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को जो मास शिवरात्रि व्रत होते हैं, उनमें यह वार्षिक व्रत है। धर्मशास्त्रियों ने शिवमहापुराण की ईशान संहिता से एक श्लोक को उद्धृत करते हुए शिवरात्रि का महत्त्व प्रतिपादित किया है।

फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। 
शिवलिंगमभूत्तत्र कोटिसूर्यसमप्रभः।

अर्थात् फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि की महत्त्वपूर्ण रात्रि में शिवलिंग के रूप में एख ज्योतिस्तम्भ के समान प्रकट हुए जो करोड़ों सूर्य के समान चमक रहे थे। ब्रह्मा एवं विष्णु इसके आदि-अन्त का पता लगाने के लिए निकले लेकिन थाह नहीं लग सका। इसके सम्बन्ध में विस्तार से कथा मिलती है।

नरक निवारण चतुर्दशी की अवधारणा

मिथिला के रुद्रधर ने वर्षकृत्य में फाल्गुन के स्थान पर माघ महीने का उल्लेख किया है-

माघे कृष्णचतुर्दश्यादिदेवो महानिशि।
शिवलिंगतयोद्भूतः सूर्यकोटिसमप्रभः।

इस आधार पर मिथिला की परम्परा में माघ कृष्ण चतुर्दशी को नरकनिवारण का व्रत मनाते हैं। किन्तु हमें यह भी जानना चाहिए कि यदि चान्द्र मास की गणना हम अमावस्या से अन्त करते हैं तो ईशान-संहिता के माघ महीने से फाल्गुन महीने का अर्थ माना जायेगा। अतः फाल्गुन कृष्ण की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि मानने की परम्परा सर्वाधिक प्रचलित है। और इसी अवसर पर भगवान् शिव की पूजा शिवलिंग के रूप में भगवान् विष्णु एवं ब्रह्मा के द्वारा आरम्भ की गयी थी, जो बाद में चलकर नारद मुनि के उपदेश से पृथ्वी पर फैली।

लिंग शब्द का वास्तविक अर्थ

शिवलिंग भगवान् शिव का प्रतीक है। लिंग का अर्थ चिह्न होता है, जिसके कारण उस वस्तु की पहचान की जाती है। भगवान् शिव परात्पर हैं, इनकी पूजा किस साकार रूप में करें, इसे कोई नहीं जान सकता है। अतः एक स्तम्भ के रूप में इनकी पूजा प्रतीक की तरह की जाती है।

लोक मान्यता

लोक मान्यता है कि इसी रात्रि में भगवान् शिव एवं पार्वती का विवाह हुआ था। अतः इस अवसर पर लोग शिव-विवाह उत्सव मनाते हैं। विभिन्न स्थानों पर शिव की बारात निकलती है। किन्तु इसका उल्लेख अभीतक किसी पुराण में नहीं मिला है।

मिथिला की मान्यता के अनुसार देवघर के रावणेश्वर वैद्यनाथ महादेव तथा मधेपुरा के पास स्थित सिंहेश्वर महादेव की स्थापना इसी दिन हुई थी।

एक अन्य कथा अनुसार इसी दिन भगवान् शिव ने विषपान किया था।

एक कथा इस प्रकार है कि एकबार पार्वती ने भगवान् शिव से कहा कि मेरे सहयोग के विना आप संसार में कोई कार्य नहीं कर पायेंगे। इसी बात पर रुष्ट होकर शिव ने अपना समस्त कार्य छोड़ दिया, जिससे पृथ्वी पर अंधेरा हो गया तथा चारों ओर सभी लोग हाहाकार करने लगे। तब घबड़ाकर देवी पार्वती ने सभी देवताओं के साथ भगवान् शिव की आराधना इसी रात्रि में की, तब जाकर संसार के सारे कार्य समय पर होने लगे।

शिवलिंग की पूजा की प्राचीनता

भारत में शिवलिंग की पूजा प्राचीन काल से प्रचलित है। इसके पुरातात्त्विक साक्ष्य भी मिलते हैं। शिल्पशास्त्र में शिवलिंग के आकार प्रकार का पर्याप्त उल्लेख मिलता है।

वराहमिहिर ने लिखा है कि शिवलिंग में तीन मेखलाएँ होतीं हैं। सबसे ऊपर गोलाकार शिव मेखला होती है, उसके नीचे आठ पहलों वाला भाग विष्णु मेखला है तथा सबसे नीचे चार पहलों वाला भाग ब्रह्ममेखला कहलाती है। शिवमेखला के नीचे शिवसूत्र यानी अरघा एवं जल-प्रणाली लगाना चाहिए।

गुप्तकाल से पूर्व के शिवलिंग में शिवमेखला वाला भाग के ऊपर एक विशेष प्रकार की घुंडी की तरह भी दिखाई देती है, लेकिन गुप्तकाल के शिवलिंग में तीनों मेखलाओं की लंबाई समान है।

बाद के कुछ शिवलिंगों में हमें ब्रह्ममेखला तथा विष्णुमेखला की लंबाई घटती गयी है। सहस्र शिवलिंग भी अनेक मन्दिरों में स्थापित हैं।

एकमुख शिवलिंग में भगवान् शंकर के एक मुख की आकृति रहती है। इसी में यदि गौरी मुँह बना रहता है तो उसे गौरीशंकर शिवलिंग कहा जाता है।

पंचमुख शिवलिंग में चारों दिशा में एक एक मुख बनाया जाता है तथा ऊपर का भाग ही पाँचवाँ मुख माना जाता है।

मिथिलामे प्रचलित बुढबा महादेव

पार्थिव शिवलिंग की पूजा- लखौरी पूजा

पार्थिव शिवलिंग की पूजा की भी प्राचीन परम्परा है। यह पारम्परिक रूप से विशेष आकार में बनायी जाती है। एक सौ की संख्या में पार्थिव शिवलिंग को जब एक साथ पूजन के लिए तैयार किया जाता है तो वह “लखौरी” के नाम से प्रसिद्ध है।

इसके अतिरिक्त पारा, नर्मदा नदी से प्राप्त नर्मदेश्वर शिव, स्फटिक आदि रूपों में भी शिव की पूजा होती है।

लखौरी महादेव

इस दिन व्रत रखकर संध्याकाल अथवा आधी रात में भगवान् शिव की विशेष पूजा का विधान किया गया है। इस पूजा में बेर, मिसरीकंद, पूआ आदि का भोग लगता है। इस दिन सन्ध्याकाल में पार्थिव शिवलिंग की पूजा प्रशस्त मानी जाती है। बहुत लोग इस दिन नक्तव्रत रखते हैं, यानी दिनभर व्रत रखकर सन्ध्या में भगवान् शिव की पूजा अपने घर में या मन्दिर में कर उनका निर्माल्य अपने शरीर पर छिड़ककर तारा उगने पर पारणा करते हैं। गृहस्थों के लिए नक्त व्रत प्रशस्त है।

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