पुराणनिर्माणाधिकरणम्।

<<Link for complete book on archive.org>>

पं. मधुसूदन शर्मा मैथिल आधुनिक भारतीय विद्वानों में अग्रगण्य माने जाते हैं। उन्होंने हमेशा भारतीय परम्परा की रक्षा के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से कई आजतक अप्रकाशित हैं। 19वीं शती के अन्तिम समय से 20वीं शती के आरम्भ में उन्होंने इन ग्रन्थों की रचना की।

पुराणों के महत्त्व पर आधुनिक विद्वानों के द्वारा लगाये गये आक्षेपों का उत्तर

इनकी समस्त रचनाओं का मूल उद्देश्य पाश्चात्त्य विद्वानों के द्वारा भारतीय साहित्य के अवमूल्यन एवं उन्हें दूषित करने की प्रवृत्ति का खण्डन करना रहा है। हम सब जानते हैं कि 1784 ई. में बंगाल में एसियाटिक सोसायटी की स्थापना के बाद पाश्चात्त्य विद्वानों ने भारतीय साहित्य के सम्पादन एवं प्रकाशन के लिए योजनाबद्ध रूप में कार्य आरम्भ किया। इस क्रम में संस्कृत के अनेक ग्रन्थ प्रकाशित किये गये तथा उनका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हुआ। इसके साथ ही उनकी विषयवस्तु की आलोचनाएँ की गयी। इस क्रम में लगभग सभी पाश्चात्त्य विद्वानों ने आर्ष-साहित्य के सन्दर्भ में भारतीय दैवी अथवा अपौरुषेयत्व सिद्धान्त खण्डन किया तथा पौरुषेयता के सिद्धान्त की स्थापना की। इस पौरुषेयता के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए मधुसूदन ओझा ने भारतीय आर्ष सिद्धान्त की स्थापना के लिए अपने ग्रन्थों की रचना की है।

इन्हीं मे से एक ग्रन्थ पुराणनिर्माणाधिकरण भी है, जिसमें सभी पुराणों को वेदमूलक सिद्ध किया गया है तथा उनकी अपौरुषेयता प्रतिपादित की गयी है।

पाश्चात्त्य विद्वानों का मत है कि पुराण परवर्ती रचना है। इसका खण्डन करते हुए उन्होंने शतपथ ब्राह्मण को उद्धृत किया है कि वहाँ एक साथ ही चार वेद, इतिहास, पुराण, उपनिषद्, विद्या, सूत्र, व्याख्यान, अनुव्याख्यान इन सब का उल्लेख हुआ है। तब फिर पुराण परवर्ती रचना है, यह कैसे कहा जायेगा।

पुराणों की संख्या का विवेचन करते हुए वे लिखते हैं कि आदिकाल में ब्रह्माण्ड नामक एक ही पुराण था, जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से हुई थी। मत्स्यपुराण में कहा गया है कि सभी शास्त्रों में पुराण की आदि है। इसके बाद ब्रह्मा के चारों मुख से चार वेदों की उत्पत्ति हुई। कालान्तर मे वही एक ब्रह्माण्ड पुराण अठारह भागों में विभाजित हुई-

पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा निर्मितं स्मृतम्।
अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्मिताः।।
पुराणमेकमेवासीत्त्तदा कल्पान्तरेनघ।
त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम्।।
कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य ततो नृप।
तदष्टादशधा कृत्वा भूर्लोके स्मिन् प्रकाश्यते।

वर्तमान प्रकाशित मत्स्यपुराण में तो यह उद्धरण उपलब्ध नहीं है, किन्तु स्कन्दपुराण के आवन्त्यखण्ड के रेवा खण्ड में तथा शिवपुराण की वायवीय संहिता के पूर्व भाग में प्रथम अध्याय में किञ्चित् पाठान्तर के साथ उपलब्ध है।

इस प्रकार मधुसूदन ओझा का मत है कि आरम्भ में पुराण की एक संहिता ही थी, जिसे भगवान् कृष्णद्वैपायन व्यास ने अपने शिष्य सूत रोमहर्षण की सुनायी। यही रोमहर्षणि संहिता मूल संहिता थी। इसके बाद रोमहर्षण के छह शिष्य हुए- सुमति, अग्निवर्चा, मित्रयुः, शांशपायन अकृतव्रण एवं सावर्णि। इनमें अकृतव्रण काश्यप कहे जाते हैं। इन छह शिष्यों में से काश्यप सावर्णि एवं शांशपायन ये तीन संहिताकार हुए। इस प्रकार पुराणों की चार संहिता अस्तित्व में आयी, जिसके सम्बन्ध में कहा गया है-

काश्यपः संहिताकर्ता सावर्णिः शांशपायनः।
रोमहर्षणिका चान्या तिसृणां मूलसंहिता।।
चतुष्टयेनाप्येतेन संहितानामिदं मुने।
आद्यं सर्वपुराणां पुराणं ब्राह्ममुच्यते।

इसी क्रम में मधुसूदन ओझा का मत है कि इन चारों पुराण-संहिता का विकास भिन्न भिन्न उद्देश्य से भिन्न भिन्न काल में भिन्न भिन्न मुनियों ने किया। जैसे, विष्णु-पुराण के वक्ता पराशर हैं और लिपिकार लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा हैं।

वस्तस्तु तेषामष्टादशानामपि
कथाप्रसंग प्रबन्धप्रस्ताविका भिन्नकाला भिन्नोद्देश्या भिन्ना भिन्ना एव मुनयः।
(पृ. 26)

इस प्रकार मधुसूदन ओझा ने भी पाश्चात्त्यों के इस सिद्धान्त को मान लिया है कि पुराणों की रचना विभिन्न कालों में विभिन्न मुनियों के द्वारा विभिन्न उद्देश्य से की गयी है, किन्तु प्राचीनता एवं अर्वाचीनता के आधार पर उनकी प्रामाणिकता एवं अप्राणिकता के विचार का वे निषेध कर रहे हैं। उनका स्पष्ट कथन है कि सभी पुराणों का मूल कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा उपदिष्ट ब्राह्मपुराण है, अतः ये अठारह पुराण अपने अपने ऋषियों के नाम से नहीं जाने जाते अपितु व्यासप्रोक्त ही माने जाते हैं। अतः वे सभी प्रामाणिक हैं क्योंकि आप्तप्रामाण्याद्धि तद्वचनप्रामाण्यम्। इस युक्ति से मधुसूदन ओझा ने सभी पुराणों की प्रामाणिकता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है।

आगे वे कहते हैं कि व्यासरचित मूल पुराणसंहिता मे वेदोक्त आख्यान, उपाख्यान, गाथा एवं कल्पशुद्धि ये चार विषय प्रतिपादित किये गये थे। इन्ही चार विषय कों दूसरे प्रकार से विभाजित कर पराशर आदि मुनियों ने पुराणों में पाँच विषयों का प्रतिपादन किया, जिनके सम्बन्ध में कोई मतवाद नहीं है-

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चलक्षलम्।

पुराणों की गणना करने के लिए प्रसिद्ध श्लोक जो आज विभिन्न पुस्तकों में उपलब्ध हैं, मधुसूदन ओझा ने दिया है-

मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्।
अ-ना-प-कूस्कलिङ्गानि पुराणानि प्रचक्षते।

इस प्रकार मधुसूदन ओझा ने पुराणों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सिद्धान्त रूप में अपना मत प्रस्तुत किया है।

पुराणों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भागवत पुराण के बारहवें स्कन्ध के सप्तम अध्याय में इस प्रकार उल्लेख हैः

त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिः अकृतव्रणः।
शिंशपायनहारीतौ षड् वै पौराणिका इमे॥५॥
अधीयन्त व्यासशिष्यात् संहितां मत्पितुर्मुखात्।
एकैकाम् अहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम्॥६॥
कश्यपोऽहं च सावर्णी रामशिष्योऽकृतव्रणः।
अधीमहि व्यासशिष्यात् चत्वारो मूलसंहिताः॥७॥

यहाँ भाष्यकार श्रीधरस्वामी के अनुसार कृष्णद्वैपायन ने एक संहिता का निर्माण किया, जिसे उन्होंने अपने शिष्य सूतपुत्र लोमहर्षण को सुनाया, जो सूत वंश में उत्पन्न होने के कारण वेद के अधिकारी नहीं थे। इसके बाद लोमहर्षण ने त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन एवं हारीत आदि छह शिष्यों को इसका उपदेश किया। इनमें से तीन शिष्य वैशम्पायन, सावर्णि एवं काश्यप ने एक-एक संहिता का निर्माण किया और अपने शिष्यों को सुनाया।

यहाँ पर श्रीधरस्वामी ने प्रथमं व्यासः षड्संहिताः कृत्वा कहा है। इसका अर्थ है कि श्रीधरस्वामी ने व्यास को ही छह संहिताओं का निर्माता माना है। इस मत का खण्डन करते हुए मधुसूदन ओझा कहते हैं कि श्रीधरस्वामी की यह पंक्ति उनके व्याख्येय श्लोक का अर्थ समझाने के लिए है। क्योंकि अठारह पुराणों में कहीं भी छह संहिताओं का उल्लेख नहीं है। साथ ही छह शिष्यों को एक-एक संहिता का उपदेश किया, यह अन्वय करना ही यहाँ भ्रम है। वास्तव में इऩ छह गुरुओं का एक शिष्य मैं एक-एक कर सभी संहिता का उपदेश ग्रहण किया, यह तात्पर्य है अथवा इन छह गुरुओं का शिष्य होकर मैंने सबकुछ ग्रहण किया यह अर्थ संगत है।

वास्तव में लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा थे उन्होंने अकृतव्रण सावर्णि एवं काश्यप के साथ मूल संहिता का उपदेश ग्रहण किया। इसके बाद अकृतव्रण आदि से उनके छह अथवा तीन शिष्यों ने अपने अपने गुरुओं से संहिताओं का अध्ययन किया।

यदि यहाँ हम श्रीधर की उक्ति के अनुसार मान लेते हैं कि व्यास ने छह संहिताओं का निर्माण किया और त्रय्यारुणि आदि मुनियों ने उनसे ग्रहण किया और इन छह मुनियों से उग्रश्रवा ने एक-एक मूलसंहिता का अध्ययन किया तब भागवत के मूल मे उक्त चत्वारो मूलसंहिताः के साथ संगति नहीं बैठती है। तब वहाँ एकवचन अथवा द्विवचन का प्रयोग होना चाहिए था अतः व्यास ने एक ही संहिता की रचना की, लोमहर्षण ने भी एक ही संहिता की रचना की यह सिद्ध होता है, दिसकी पुष्टि विष्णुपुराण आदि से होती है। अतः इसलिए श्रीधरस्वामी ने जो व्यास को षट्संहिताकार कहा है वह उचित नहीं।

यहाँ यह भी जानना चाहिए कि व्यासकृत मूलसंहिता की चार विषयवस्तुएँ थीं- आख्यान, उपाख्यान, गाथा एवं कल्पशुद्धि, किन्तु लोमहर्षण कृत संहिता की पाँच विषयवस्तुएँ मानी गयी- सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर एवं वंशानुचरित। ये वस्तुतः उन चारों के ही भिन्न प्रकार से विभाजन थे। किन्तु बादमे जो अठारह पुराण के रूप में पल्लवित हुए उनकी दश विषयवस्तुएँ मानी गयी। अतः यहाँ पं. ओझा ने दशभिर्ल्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः यह कहते हुए कहते हैं- इदानीन्तनाः पुराणसंहिताः दशलक्षणोपेताः पञ्टलक्षणोपेताः अनियतलक्षणा वा। पुराणों की दशविषयवस्तुओं का प्रतिपादन भागवत में इस प्रकार हुआ है।

सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्तिरक्षान्तराणि च।
वंशो वंशानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः॥९॥
दशभिः लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः।
केचित्पञ्चविधं ब्रह्मन् महदल्पव्यवस्थया॥१०॥

इस   प्रकार मधुसूदन ओझा ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अठारह महापुराणों को दशलक्षणोपेत एवं उपपुराणों को पञ्चलक्षणोपेत कहने की जो व्यवस्था भागवत मे की गयी है, वह पुराणान्तर से मेल नहीं खाती है। ऊपर प्रतिपादित है कि-

  • व्यासकृत मूलसंहिता- चतुर्लक्षणोपेता
  • लोमहर्णकृत मूलसंहिता- पञ्चलक्षणोपेता
  • त्रय्यारुणि आदि कृत षट्संहिता- पञ्चलक्षणोपेता

वर्तमान अष्टादशसंहिता- दशलक्षणोपेता, पञ्चलक्षणोपेता अनियतलक्षणा वा। अनियतलक्षणा कह कर उन्होंने पुराणों में शिल्प, काव्य, ज्यौतिष, व्याकरण आदि शास्त्रों के प्रतिपादन स्थलों का भी संकलन कर लिया है।

यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि भागवत पुराण के उक्त स्थल पर वर्तमान प्रकाशित प्रतियों में वैशम्पायनहारीतौ पाठ मिलता है, किन्तु मधुसूदन ओझा ने विभिन्न पुराणों का अनुशीलन कर वैशम्पायन के स्थान पर शिंशपायन नाम माना है क्योंकि कूर्मपुराण, अग्निपुराण आदि मे शांशपायन शब्द आया है।

इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ मे मधुसूदन ओझा ने पुराण की उत्पत्ति के सम्बन्ध पाश्चात्त्य एवं प्राचीन विद्वानों के मतों की समीक्षा कर सभी पुराणों के स्वारस्य के आधार पर उत्पत्ति के सम्बन्ध में विवेचन किया है, जो उनकी मौलिकता को प्रदर्शित करता है।

Madhusudan Ojha from Mithila
मिथिला के दुर्धर्ष विद्वान् म.म. मधुसूदन ओझा

इसी पुराणनिर्माणाधिकरण में एक अध्याय के रूप में पुराणों के अनुसार वेदों की शाखा के सम्बन्ध में भी निरूपण है । पुराण के अनुसार एक यजुर्वेद ही आदि मे था। पुराणों के अनुसार आदिकालमे एक ही वेद था जिसके चार चरण थे, उसी के दश विभाग कर दश प्रकार के यज्ञों का प्रचलन हुआ। उसी एक वेद मे तीन विभाग थे- ऋक्, यजुः एवं साम। पाश्चात्त्य विद्वानों का मत है कि आरम्भ में अथर्ववेद की मान्यता नहीं थी अतः वेद को त्रयी कहा गया है। इसका खण्डन करते हुए इन्होंने कहा है कि ये क्रमशः गद्य, पद्य एवं गीत इन तीनों रूप मे थे। कोई भी रचना तीन प्रकार की ही हो सकती है अतः वेदों का एक नाम त्रयी पडा। बाद मे यज्ञ मे चार ऋत्विज होते हैं, अतः चतुरो वेदाः यह कहा गया। अथर्ववेद के सम्बन्धमे पाश्चात्त्यों के मतों का यहाँ खण्डन है। साथ ही इन्होंने स्वामी दयानन्द के मत का भी विरोध किया है, क्योंकि दयानन्द वेदों की यज्ञमूलकता नहीं मानते हैं।

इस प्रकार मधुसूदन ओझा के मत से कृष्णद्वैपायन व्यास ने ही अपने चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनि एवं सुमन्तु को क्रमशः ऋक्, यजुः, साम एवं अथर्व की शिक्षा दी तथा रोमहर्षण को इतिहास एवं पुराणों का उपदेश किया।

इस प्रकार मधुसूदन ओझा ने अपने द्रन्थ पुराणनिर्माणाधिकरणम् मे वेदों और पुराणों की उत्पत्ति की परम्परा को विशुद्ध भारतीय दृष्टि से प्रतिपादित किया है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *