(दरभंगा में ई-समाद संस्था के द्वारा आयोजित रमानाथ झा व्याख्यानमाला के अन्तर्गत दिनांक 28 अप्रैल , 2019 को मो. शफी मेमोरियल लेक्चर में पढा गया आलेख।)

क्या वर्तमान जनकपुर मिथिला नगरी थी? इन्ही प्रश्नों पर प्रमाण के साथ एक विवेचन

मिथिला क्षेत्र की मिट्टी बहुत कोमल है और यहाँ बाढ के कारण बहुत तबाही हुई है। पहाड नहीं होने के कारण कच्ची मिट्टी, लकड़ी घास-फूस से यहाँ घर बनाने की परम्परा रही है अतः यहाँ अधिक पुराने अवशेष पुरातात्त्विक साक्ष्य के रूप में मिलना असंभव है। अतः किसी स्थान के निर्धारण के लिए हमे साहित्यिक स्रोतों और किसी स्थान के प्रति लोगों की श्रद्धा को ही स्रोत मानने की मजबूरी है। ये दोनों स्रोत जहाँ एक दूसरे से मेल खाते हैं उसे ऐतिहासिक साक्ष्य माना जा सकता है। सीता के जन्मस्थान के निर्धारण के विषय में भी यहीं स्थिति है। इनमें से साहित्यिक स्रोत विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। राजा जनक की पुत्री जानकी का जन्म मिथिला में हुआ था इस तथ्य पर कोई मतभेद नहीं है। वाल्मीकि रामायण से लेकर जहाँ कहीं भी सीता के जन्म का उल्लेख हुआ है, मिथिला का उल्लेख हुआ है। प्राचीन साहित्यों में मिथिला का उल्लख दो प्रकार से मिलता है 
· राजधानी के रूप में
· पूरे राष्ट्र के रूप में।

  1. बौद्ध-साहित्य में मिथिला

बौद्ध पाली ग्रन्थों में विदेह में मिथिला की अवस्थिति मानी गयी है- 
· अथ खो उत्तरो माणवो सत्तन्‍नं मासानं अच्‍चयेन विदेहेसु येनमिथिला तेन चारिकं पक्‍कामि। (ब्रह्मायु सुत्त) 
· मिथिला च विदेहानं, चम्पा अङ्गेसु मापिता। 
बाराणसी च कासीनं, एते गोविन्दमापिताति॥ (महागोविन्द सुत्त) 
यहाँ स्पष्ट रूप से मिथिला एक क्षेत्र का नाम है, जो राजधानी थी। पूरे राष्ट्र के रूप में मिथिला का उल्लेख 1000 वर्ष से पुराना नहीं है। 
इस प्रकार, सीता के जन्मस्थान मिथिला का उल्लेख जहाँ कहीं भी हम देखते हैं, तो हमें मानना होगा कि यह मिथिला विदेह राज्य की राजधानी थी। 

वाल्मीकि-रामायण का साक्ष्य

मिथिला के इतिहासकारों ने वाल्मीकि रामायण के श्लोकों को उद्धृत कर चेचर ग्राम समूह से पूर्वोत्तर देशा में मिथिलापुरी की अवस्थिति मान ली है। जबकि राम, लक्ष्मण तथा विश्वामित्र मिथिला पहुँचकर पूर्वोत्तर दिशा की ओर चले हैं जहाँ यज्ञ हो रहा था। इस प्रकार मिथिला पुरी कहाँ थी इसके निर्धारण में वाल्मीकि-रामायण से हमें कोई सहायता नहीं मिलती है।

यह मिथिला कहाँ थी, इसके निर्धारण के क्रम में विद्वानों ने अनेक तर्क प्रस्तुत किया है। वाल्मीकि रामायण में मिथिला की अवस्थिति का एक ही साक्ष्य है जिसमें कहा गया है कि गंगा और सोन के संगम पर नदी पार कर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ विशाला नामक नगरी पहुँचे और वहाँ से पहले मिथिला गये। इसका उल्लेख वाल्मीकि-रामायण के बालकाण्ड के 49वें अध्याय के अन्त में इस प्रकार है-
रामं संपूज्य विधिवत् तपस्तेपे महातपः ।। 21 ।।
रामो ऽपि परमां पूजां गौतमस्य महामुनेः । 
सकाशाद्विधिवत्प्राप्य जगाम मिथिलां ततः ।। 22 ।।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे बालकाण्डे एकोनपञ्चाशः सर्गः
अर्थात् गौतम ऋषि ने श्रीराम का सत्कार किया और श्रीराम ने भी गौतम की पूजा की और तब मिथिला गये। यहीं पर सर्ग की समाप्त हो जाता है। अहल्यास्थान से मिथिला की दिशा का कोई उल्लेख नहीं है।
अगले सर्ग के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि मिथिला से चलकर उत्तर-पूर्व कोण की ओर चलकर राजा जनक की यज्ञ-स्थली पर पहुँचे। 
ततः प्रागुत्तरां गत्वा रामः सौमित्रिणा सह । 
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत् ।। 1.50.1 ।। 
अर्थात् इसके बाद पूर्वोत्तर दिशा की और यज्ञस्थल पर पहुँचे। इसका अर्थ है कि यज्ञस्थल मिथिला से पूर्वोत्तर-कोण में अवस्थित था। फलतः इस प्रसंग से हमें मिथिला के स्थान निर्धारण में कोई सहायता नहीं मिलती है।
वाल्मीकि रामायण में मिथिला के उपवन मेंं ही अहल्या का आश्रम बतलाया गया है। तथा वैशाली से मिथिला की और प्रस्थान करते समय दिशा का कोई उल्लेख नहीं है।
उष्य तत्र निशामेकां जग्मुतुर्मिथिलां ततः ।
तां दृष्ट्वा मुनयस्सर्वे जनकस्य पुरीं शुभाम् ।। 10 ।।
साधु साध्विति शंसन्तो मिथिलां समपूजयन् । 
मिथिलोपवने तत्र आश्रमं दृश्य राघवः ।। 11 ।।
पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुङ्गवम् । 
श्रीमदाश्रमसङ्काशं किं न्विदं मुनिवर्जितम् ।। 12 ।।
अर्थात् वैशाली में एक रात्रि बिताकर मिथिला गये। सभी मुनियों को जनक की पुरी देखकर आश्चर्य हुआ। इन्होंने साधु, साधु कहकर इस नगरी की प्रशंसा की। इसी मिथिला के समीप वन में एक प्राचीन आश्रम देखा। वहीं आश्रम गौतमाश्रम था, जो वर्तमान में दरभंगा जिला में अहल्या-स्थान है।

चीनी यात्री ह्वेन्त्सांग का साक्ष्य

वैशाली से मिथिला की दिशा निर्धारित करने में हमें ह्वेन्त्सांग के दृत्तान्त से काफी सहायता मिलती है। ईसा की 7वीं शती में ह्वेन्त्सांग ने भी एक मार्ग का उल्लेख किया है। ह्वेन्त्सांग के यात्रावृत्तान्त में केसरिया का स्तूप स्पष्ट है, जहाँ से 80-90 ली (27-30 कि.मी.) दक्षिण श्वेतपुर अवस्थित है। इस श्वेतपुर से उत्तरपूर्व दिशा में 500 ली ( 166 कि.मी.) पर वज्जि देश है। ह्वेन्त्सांग के अनुसार यही तीह-लो है जिसे तीरभुक्ति अथवा तिरहुत कहा गया है। सी-यु-कि के अंग्रेजी अनुवादक सैम्युअल बील ने लिखा है- 
The symbols Tieh-lo probably represent Tirabhukti, the present Tirhut, the old land of the Vrijjis. 
वर्तमान में श्वेतपुर महाविहार को चेचर के आनन्द-स्तूप से जोडा जाता है, जहाँ से 166 कि.मी. उत्तर-पूर्व की ओर मिथिला नगरी की अवस्थिति होनी चाहिए। साथ ही, वहाँ से 4000 ली. (1333 कि.मी.) दूरी पर नेपाल की अवस्थिति मानी गयी है, जहाँ पहुँचने के लिए हिमालय की कुछ घाटियों को भी पार करने का उल्लेख है। 
इस प्रकार काठमाण्डू और हाजीपुर के बीच काठमाण्डू से 1333 किमी.मी. दक्षिण-पश्चिम कोण में तथा हाजीपुर से 166 कि.मी. उत्तर-पूर्व कोणमे प्राचीन मिथिला नगरी की अवस्थिति रही होगी।

फारसी ग्रन्थों में उल्लेख

इतना उल्लेख होने के बाद भी हम इन साक्ष्यों के आधार पर मिथिला नगरी की वास्तविक अवस्थिति नहीं जान सकते हैं। इसके लिए हमें अन्य साक्ष्य की सहायता लेनी होगी। इसके लिए हमें स्थान के नामकरण की परम्परा का एक साक्ष्य मिलता है। मिथिला नगरी दिल्ली सल्तनत के काल से मुगलकाल तक महला महाल (परगना) के रूप मे संरक्षित रही। इस महला का उल्लेख अबुल फजल ने भी तिरहुत के महालों में किया है, जिसका क्षेत्रफल उन्होंने 15,295 बीघा माना है। यह महला परगना बाद मे मिहिला के नाम से भी जाना गया, जो मिथिला का फारसीकृत रूप है। चूँकि यह केवल 15,295 बीघे का एक भूखण्ड है, अतः इस क्षेत्र में जनकपुर (नेपाल) को मानना भ्रम मात्र है।

प्राकृत भाषा के ग्रन्थों का साक्ष्य

वस्तुतः मिथिला के लिए मिहिला शब्द प्राकृत भाषा की देन है। जिनप्रभसूरि ने तीर्थकल्प नामक ग्रन्थ में 14वीं शती में मिथिला के लिए मिहिला शब्द का प्रयोग किया है। 
इसी मिहिला परगना मे वर्तमान सीतामढी एक स्थान है। सीतामढ़ी नामकरण 19वीं शती में हुआ है, अतः इससे प्राचीन साहित्य मे इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में यह नाम पर्याप्त प्रचलित है, जिसे सीता की जन्मभूमि माना गया है। 

विद्यापति कृत भूपरिक्रमणम् का साक्ष्य

महाकवि विद्यापति ने भी भूपरिक्रमणम् नामक ग्रन्थ में जनक के देश का विवरण दिया है, जिसका मूल हिन्दी अनुवाद के साथ इस प्रकार है- 
अथान्तरे बलदेवो हि नरहरिनामदेशकम्। 
परित्यज्यैव गतवान् देशं पाटलिसंज्ञकम्।। 
तत्र देवीं पूजयित्वा दृष्ट्वा नगरशोभनम्। 
गंगामुत्तीर्य गतवान् गंगागण्डकसंगमम्।। 
इसके बाद बलराम नरहरि नामक देश को छोडकर पाटलि नामक देश पहुँचे जहाँ उन्होंने देवी की पूजा कर नगर की शोभा देखी और गंगा को पार कर गंगागण्डक के संगम पर पहुँचे।
हे राजन्, वहाँ स्नान एवं तर्पण कर तीरभुक्ति को छोडकर मुनि के साथ जनक देश गये, वहाँ आठ रात्रि रहे और अनेक तीर्थों का निर्माण किया। 
यह जनक देश का परिमाण 22 योजन है और वहाँ हजार गाँव हैं। यहाँ निम्न कुल वाले भी लोग उदार होते हैं। 
जनकपुर के दक्षिण में सात कोस की दूरी पर डिजगल नामक विशाल गाँव है, जहाँ जनक की वासभूमि है। वहाँ नदियों में श्रेष्ठ, सदा वेग वाली यमुना (जमुनी नदी) बहती है। 
डिजगल गाँव के दक्षिण भाग मे आधा योजन (दो कोस) की दूरी पर गिरिजा नामक गाँव है जो देशवासियों में विख्यात है। वहाँ दो तालाबों के बीच एक प्राचीन मन्दिर है। बलराम मुनि के साथ भैरवस्थान भी गये। वहाँ भैरव की पूजा कर सीता मण्डप भी गये, जहाँ प्राचीन काल में सीता का विवाह हुआ था और गाँठ बाँधी गयी थी। 
सीताकुण्ड के दक्षिण में तीन कोस की दूरी पर चण्डीस्थान है, जहाँ देवी हमेशा जागृत रहती है। 
हे राजन् (देवसिंह) सीताकुण्ड के दक्षिण में देवताओं के द्वारा शासन करने योग्य स्थान सुरस्थान है, जिसके दक्षिण में सात कोस की दूरी पर धनुषग्राम है। वन पार करने के बाद तुरत ही एक विशाल गाँव में परशुराम कुण्ड है। इस गाँव में अहीर लोग रहते हैं। वहाँ गोरस बहुत मात्रा में मिलती है और गाँ में बहुत लोग रहते हैं। 
गिरिजा गाँव के दक्षिण में पाँच कोस की दूरी पर आहारी नामक विशाल गाँव गोतमकुण्ड के समीप है। यहाँ अहल्यावट पूजित है और ह्रस्वा नामक नदी भी प्रसिद्ध है। इस आहारी पत्तन से कमला नदी अधिक दूर नहीं है।  
जनकपुर से दक्षिण में पाँच कोस की दूरी पर विशोर नामक विशाल गाँव है, जहाँ बलराम गाँव के बाहर ठहरे। 
वहाँ से पाँच कोस की दूरी पर अरगाजापु नामक कुण्ड है। वहीं पर दशरथ कुण्ड भी विख्यात है। वहाँ दशरथ कुण्ड एवं गंगासागरकुण्ड में जलेश्वर महादेव प्राचीन पद्धति से पूजित हैं जो एक कुण्ड के जल को छोडकर दूसरे कुण्ड के जल में प्रविष्ट हो गये। 
बलराम अपने समवयस्कों, वृद्धों एवं मुनियों के साथ इनकी पूजा की तथा मन्दिर में देवता को बन्द किया अर्थात् मन्दिर का निर्माण किया। 
रात्रि में गौतम कुण्ड के पास त्रिकालदर्शी मुनि ने बलराम को अलस की कथा कही और परिश्रम को दूर करने के लिए दूसरी बातें भी की। 
इस विस्तृत विवरण में जनकपुर, सुरस्थान, आहारीग्राम, गौतमकुण्ड, इतने स्थान आज भी परिचित हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन गिरिजास्थान का निर्धारण भी सुगम हो जाता है, क्योंकि उसी के समीप भैरवस्थान का उल्लेख है। वर्तमा में यह भैरव स्थान सीतामढी के पास कोदरिया गाँव में है, जिसका उल्लेख कनिंघम ने भी किया है। यदि विद्यापति के वर्णन को हम कनिंघम द्वारा दिये गये वर्णन के आलोक में देखते हैं तो स्पष्ट है कि भैरव मन्दिर गिरिजा नामक गाँव में है, जहाँ से दो कोस उत्तर डिगजल गाँवमें जनक का राजमहल है। इसका अर्थ यह है कि विद्यापति के काल में सीतामढी का ही दूसरा नाम गिरिजा गाँव था। वर्तमान में फुलहर के पास जो गिरिजा स्थान है, वह मन्दिर का नाम है, गाँव का नहीं। वह स्थान पुष्पवाटिका से सम्बद्ध है, जन्मस्थान से नहीं। 
जनकपुर से सात कोस दक्षिण मे एवं गिरिजास्थान से दो कोस उत्तर जनक के राजमहल का उल्लेख है, जहाँ जमुनी नदी का प्रवाह कहा गया है। और इसी गिरिजास्थान से पाँच कोस दक्षिण में गोतम कुण्ड के समीप आहारी ग्राम है, जहाँ अहल्यावट है, ह्रस्वा नदी भी तथा कमला नदीं भी अधिक दूर पर नहीं बहती है। इस प्रकार आहारी गाँव (अहियारी) से सात कोस उत्तर 12 कोस पर जनकपुर की अवस्थित मानी गयी है, किन्तु डिजगल गाँव में राजा जनक का महल कहा गया है। 
यहाँ वर्णन के अनुसार आहारी पत्तन यानी अहियारी गाँव के उत्तर एक घना जंगल जिसके उत्तर धनुष ग्राम है। साथ ही इस धनुषग्राम से पाँच कोस उत्तर सुरस्थान माना गया है, जिसे वर्तमान सुरसंड कहा जा सकता है। 
इस प्रकार विद्यापति ने गिरिजा स्थान से लेकर सुरसंड, जलेश्वर तथा दक्षिण में अहियारी से कुछ उत्तर धनुषग्राम के बीच सीता से सम्बद्ध सभी स्थानों का वर्णन किया है। जनकपुर का उल्लेख तो है, किन्तु वहाँ किसी भी तीर्थस्थल का उल्लेख नहीं है। वहाँ से सात कोस दक्षिण में अवस्थित डिजगल नामक गाँव से दक्षिण ही सारे स्थानों का उल्लेख उन्होंने किया है। 

कर्णाटकाल में मिथिला

मिथिला के शासक हरिसिंह देव के काल में मिथिला शब्द का प्रयोग सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए मिलता है। चण्डेश्वर ने अपने कृत्यरत्नाकर में लिखा है- 
अस्ति श्रीहरिसिंहदेवनृपतिर्निःशेषविद्वेषिणां 
निर्माथी मिथिलां प्रशासदखिलां कर्णाटवंशोद्भवः।। 
इसी काल में मिथिला जो प्राचीन राजधानी थी अज्ञात हुई और एक छोटे क्षेत्र के रूप में सिमट गयी। सम्भवतः यह मिहिला महाल अथवा परगना के रूप में सिमटकर केवल भूमि सम्बन्धी रिकार्ड रखने के लिए प्रयोग में आ गयी। इसी रूप में 1595 ई. मे अबुल फजल ने आइन-ए अकबरी में महला नामक एक महाल सूबा ए तिरहुत के अन्तर्गत माना है। 

जनरल कनिंघम एवं विल्सन हुण्टर का सर्वेक्षण

इसीलिए कनिंघम मे पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के दौरान सीतामढी का ही दूसरा नाममहिला मान लिया है। इस सीतामढी में भी मुख्य जन्मस्थान से सम्बद्ध दो मान्यताएँ हैं, जिनका उल्लेख A Statistical Account of Bengal, Volume 13 मे Sir William Wilson Hunter (1877 ई. मे प्रकाशित) ने किया है। 
दूसरी मान्यता का भी उल्लेख उसीने किया है- 
यह 1877 ई.की यथास्थिति है। यहाँ पुनौरा के वर्णन से स्पष्ट है कि वहाँ के महन्थ पुनौरा को स्थापित करने करने का प्रयास कर रहे हैं, किन्तु लोगों की विशेष श्रद्धा सीतामढी के स्थान के प्रति है। 

श्रीकृष्ण ठाकुर का ग्रन्थ मिथिलातीर्थप्रकाश

इसी वर्ष श्रीकृष्ण ठाकुर ने मिथिलातीर्थप्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना की। इसकी भूमिका में वे लिखते हैं कि जिन स्थानों का या तो मुझे प्राचीन उल्लेख नहीं मिला या प्राचीन उल्लेख मिलने के बावजूद वह स्थान नहीं मिला उनका उल्लेख मैंने इस ग्रन्थ में नहीं किया है। इस प्रकार के प्रामाणिक ग्रन्थ में वे भी लिखते हैं- 
पद्मपुराणे।। 
अथ लोकेश्वरी लक्ष्मीर्जनकस्य पुरे सुता। 
शुभक्षेत्रे हलोत्खाते तारे चोत्तरफाल्गुने। 
अयोनिजा पद्मकरा बालार्क्कशतसन्निभा।। 
सीतामुखे समुत्पन्ना बालभावेन सुन्दरी। 
सीतामुखोद्भवात् सीता इत्यस्यै नाम चाकरोत्।। 
शुभक्षेत्रे सीतामहीति प्रसिद्धे सीतामुखे लाँगलपद्धतिमुखे।। वाल्मीकीये।। 
अथ मे कृष्यतः क्षेत्रां लाङ्गलादुत्थिता ततः। 
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।। 
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्तत ममात्मजा।। 
वीर्यशुक्लेति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा।। 
यामलसारोद्धारे।। 
अथ लाँगलपद्धत्यां मिथिलायां हरिप्रिया। 
राज्ञः प्रकृष्यतः क्षेत्रमाविर्भूता धरातलात्।। 
यहाँ स्पष्ट रूपसे उन्होंने सीतामही अर्थात् सीतामढी का उल्लेख किया है। इस प्रकार वर्तमान सीतामढी का एक नाम गिरिजा गाँव भी था। 

कनिंघम द्वारा सीतामढी का वर्णन

इस सीतामढी अर्थात् महिला का वर्णन कनिंघम ने इस प्रकार किया है- 
7.—SITA MARHI, OR MAHILA. 
The extensive village of Sita-Marhi is situated a little more than 40 miles north-West of Darbhanga in a direct line, and 14. miles from the nearest point of the Nepal frontier. It is bounded on the east by ~a branch of the Sowrun Nala, and, I believe, at short intervals during the rainy season, portions of the village are inundated by the numerous small streams which become confluent in parts, and flood the country. Of the antiquities at Sita-Marhi there is little to be said, and with the exception of some temples dedicated to Site, the place is quite devoid of archaeological interest. There is at Kodeira, about [0 miles south-east of Sita-Marhi, an old well sacred to Bhairubmath (Mahadev), which evidently had a brick temple over it. This temple has sunk into a mass of brick debris out of which, and entirely rooted in the heap, there grows a very large pipal tree. ‘ The tree is clearly very old, so it must be a long time since the temple fell out of repair and out of repute. In all probability the disuse and abandonment of the temple was owing to the well drying up. The tradition which seeks to explain the name of this village, is that the goddess Sita, or janki, was born in a furrow ploughed on the present site of Sita-Marhi by her father, whose name was Raja Janak, hence Sita is sometimes called Janaki, or “daughter of janak.” But this, together with other interesting legends, is given at length in Dr. Hunter’s Statistical Account of Tirhut, an excellent work for reference. The extreme paucity of antiquarian remains at Sita-Marhi is the less to be regretted, as my chief motive for going into this sub-division of Tirhut, was to inspect a meteorite which fell at Andhdra, 4 miles south-west. 
इन प्रमाणों के आधार पर माता जानकी की जन्मभूमि के रूप मे सीतामढी सिद्ध होता है और पुनौरा का दावा बहुत प्राचीन नहीं है।

सीतामढी स्थित जानकी-मन्दिर की स्थापना 1599 ई.मे हुई थी। इस स्थापना के समय दरभंगा नरेश नरपति ठाकुर ने इस मठ को भूमि दान में दिया था। 1923 ई.मे इस मठ के उत्तराधिकार के लिए पटना उच्च न्यायालयमे एक वाद चला था। इस वाद पर न्यायाधीश ने जो अपना फैसला दिया है, उसमें इस मठ का पूरा इतिहास दिया गया है। उच्च न्यायालय का फैसला पढें>>

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