सनातन धर्ममे मरणोपरान्त दाह-संस्कार कएल जाइत अछि। एहि संस्कारक संकेत हमरालोकनिकें ऋग्वेदमे सेहो भेटैत अछि। यज्ञमे अग्निक प्रार्थना करैत कहल गेल अछि जे हे अग्निदेव, मांस भक्षण केनिहार, शरीरकें यमलोक धरि पहुँचौनिहार अर्थात् शव कें डाहनिहार अहा यमलोक चल जाउ। एतय यज्ञमे अहाँ अपन दोसर रूपमे आबि देवतासभक लेल हविष्य लए जाउ। एहि मन्त्रमे अग्निक दू टा रूप भेटैत अछि-

  • मरणोपरान्त शरीरकें यमलोक धरि पहुँचौनिहार,
  • देवताकें हविष्य पहुँचौनिहार

मन्त्र एहि प्रकारक अछि-
क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्यं  गच्छतु रिप्रवाहः।
इहैवायमितरो    जातवेदाः देवेभ्यो हव्यं वहतु सुप्रजानन्।। (10.16.9)

एहि मन्त्रमे स्पष्ट संकेत अछि जे मृत्युक उपरान्त अग्नि-संस्कारक विधान भारतमे ऋग्वेदकालसँ अछि। एहि दाह संस्कारसँ पहिने अभ्युक्षण अर्थात् स्नान करएबाक विधान छैक, जे वर्तमानमे सभ प्रचलित पद्धतिमे उपलब्ध अछि। एहि स्नानक संकेत हमरालोकनिकें ऋग्वेदक 10म मण्डलक 14म सूक्त यमसूक्तमे भेटैत अछि। ओतय कहल गेल अछि जे श्मशानमे चारि आँखिवला दू टा कुकुर अछि, जे शवकें दूषित करवाक लेल तत्पर रहैत अछि, किन्तु ओ शवकें छुबि नै पबैत अछि किएक तँ शवक अभ्युक्षण अर्थात् मन्त्रसँ अभिषेक एवं स्नान करा देल गेल अछि।

इहो अवधारणा छैक जे श्मशानक ओ भूमि-खण्ड यमराज मृतक कें देलनि, जतय मृतकक दाह संस्कार होएत। ओतए सँ सभ पिशाचकें दूर हटि जेबाक लेल कहल जाइत अछि- “शवक लेल दाहभूमि(श्मशान) मे रहएवला भूत-पिशाचलोकनि, एहि मृत यजमानक दाहभूमि कें छोडि अहाँसभ दूर भागि जाउ। ई भूमि मृतक यजमानक स्थान थीक। ई स्थान दिनक द्वारा रातिक द्वारा आ अभ्युक्षण लेल जल द्वारा पवित्र कएल गेल अछि। मृतकक देवता यमराज ई स्थान मृतक कें देने छथि।”

एतहि श्मशानक अग्निदेवसँ प्रार्थना कएल गेल अछि जे अहाँ मृतक कें ओतए लए जाउ, जतए हुनक पूर्वज गेल छथि आ यमलोकमे यमराजक संग प्रसन्नतापूर्वक रहि रहल छथि।

मरणोपरान्त कएल जाए वला श्राद्धक सम्बन्धमे यद्यपि किछु परवर्ती पन्थमे प्रश्नचिह्न लगाओल गेल अछि, जेना कि आर्यसमाजीलोकनि कहैत छथि, मुदा जँ वैदिक साहित्यक पुनरवलोकन करी तँ देखैत छी जे ऋग्वेदक अनेक सूक्तमे श्राद्धक उल्लेख भेल अछि तथा मरणोपरान्त अपन माता-पिताक श्राद्धकर्मकें श्रेष्ठ कहल गेल अछि। ऋग्वेदमे श्राद्धक मूल तथ्यक उल्लेख एकर प्राचीनता सिद्ध करैत अछि।

पुनर्जन्म भारतक सनातन मान्यता थीक। वैदिक, बौद्ध आ जैन एहि तीनू परम्परामे पुनर्जन्मक सिद्धान्त कें स्वीकार कएल गेल अछि। श्रीमद्भगवद्गीताक मान्यता अछि जे जेहिना हमरालोकनि फाटल-पुरान वस्त्रकें उतारि नव वस्त्र पहिरैत छी ओहिना आत्मा जीर्ण, रोगी आ अशक्त शरीरकें छोडि नव शरीरमे प्रवेश करैत अछि। यैह मृत्यु आ पुनर्जन्म थीक। आत्मा कहियो मरैत नै अछि, ने जन्म लैत अछि। ओ अजर-अमर अछि।

वैदिक मान्यता अछि जे हमरालोकनिक पूर्वज यमलोक जाइत छथि। ओतए यमक प्रसन्नताक कारणें हुनक कृपासँ नीक स्थान पबैत छथि, जतए ओ अपन पूर्वजक संग रहैत विभिन्न प्रकारक सुख-भोग करैत छथि। अतः मृत्युक देवता यमकें प्रसन्न करबाक लेल हुनक स्तुति करब, हविष्यसँ हुनका प्रसन्न करब प्रत्येक मृतकक सन्तानक कर्तव्य थीक, जाहिसँ हुनक माता-पिता मरणोपरान्त यमराजक कृपा पाबि सकथि आ अपन पूर्वजक लोकमे जाए हुनकासँ मीलि रहि सकथि। संगहिँ हुनका प्रेतलोकमे बौआए नै पडनि।

ऋग्वेदक दशम मण्डलक 14म सूक्त यमसूक्तमे मृत प्राणीक आत्मज पुत्रकें संबोधित करैत कहल गेल अछि जे अहाँक पितरक स्वामी यमराज छथि, जे श्राद्धमे देल गेल अन्न कें ग्रहण करैत छथि, अहाँ ओहिसँ हुनका तृप्त करू। यम विधानपूर्वक कएल गेल श्राद्धसँ प्रसन्न होइत छथि आ मृत प्राणीकें अभीष्ट स्थान (स्वर्ग) जेबाक सभटा बाट प्रशस्त खोलि दैत छथि। मरणोपरान्त जीवकें सद्गति देबाक अधिकारी ओएह छथि।

एही सूक्तमे आगाँ संकेत अछि जे मृत प्राणी स्वर्गमे देवराज इन्द्रक प्रजा बनि जाइत छथि। एहि पितरलोकनिमे जे महत्तवपूर्ण कव्य, अंगिरस्, ऋक्व आदि पितर छथि ओ क्रमशः इन्द्र, यम आ बृहस्पतिक सेहो सहायता करैत छथि। ई सभ वर्द्धमान (बढनिहार) पितर थिकाह, सदिखन बढैत रहैत छथि। हुनकालोकनिक एहि स्वर्गक जीवन लेल श्राद्ध कए यमकें प्रसन्न करब आवश्यक अछि।

एही सूक्तमे यमसँ प्रार्थना कएल गेल अछि जे अहाँ श्राद्धकर्ममे आबि कुशक आसन पर बैसि यजमान (कर्ता)कें इच्छित फल दियनु। कर्ता यजनामक रूपमे कामना करैत छथि जे हमर पहिलुक पूर्वज अर्थात् पितामह, पितामही, प्रपितामह, प्रपितामही आदि ऊपरक पीढीक छलाह ओ पहिनहिँ मरणोपरान्त जाहि बाटें गेल छथि ओही बाट होइत हमर ई नवीन पूर्वज (जनिक श्राद्ध भए रहल अछि ओ पिता-माता आदि) जाथु आ एहि श्राद्धमे अन्नसँ तृप्त यमदेवता एवं राजा वरुणक दर्शन करथु।

एही यमसूक्तमे कर्ता अपन मृत माता-पितासँ प्रार्थना करैत छथि जे हे मृतक, अहाँक पितर स्वर्गमे पहिनहिंसँ विराजमान छथि, हुनकासँ जाए मीलि जाउ। अहाँ जे एहि लोकमे इष्टापूर्त्त (यज्ञादि एवं श्रौत-स्मार्त्त निरूपित दान आदि) कएल अछि ओ फल अहाँकें भेटि जाए। एहि इष्टापूर्त्तक फलसँ अहाँ पापरहित भए व्रियमाण नामक ग्रह पर स्थान पाबी आ अपन सुन्दर कान्तिमय शरीरकें पाबी।

एहि मन्त्रमे इहो संकेत कएल गेल अछि जे यमलोकमे प्रत्येक प्राणी अपन प्रकाशमान शरीर कें धारण करैत छथि आ अपन पूर्वजक बीच रहैत सुख भोगैत छथि। यैह संकल्पना वर्तमान श्राद्धपद्धतिमे सपिण्डीकरणक नियमन करैत अछि।

एही प्रकारें ऋग्वेदक 10म मण्डलक 15म सूक्त पितृ-सूक्तमे कर्ता अपन पितरसँ प्रार्थना करैत छथि जे ओहि सभ पितरकें हमर प्रणाम अछि, जे पहिनहिं मृत्यु पओने छथि, जेना- पितामह, ज्येष्ठ भ्राता आदि। हुनका संगहिँ जे पितर बादमे मुइल छथि- जेना छोट भाए आदि। जे पितर नव जन्म ग्रहण कए बन्धुरूपमे एहि पृथ्वी पर आबि चुकल छथि अथवा जे पितर द्युलोकमे श्रेष्ठ लोकनिक बीचमे छथि, ओहि सभ पितरकें आइ प्रणाम करैत छी। ।

एहि प्रकारे ऋग्वेदक तीन सूक्तमे मृत्युक उपरान्त सन्तानक द्वारा कएल जाएवला श्राद्धकर्मक मूल भावना निहित अछि। संगहिं हमरालोकनि देखैत छी जे एतए सामान्य मनुष्यक चर्चा कएल गेल अछि, कोनो जातिविशेषक नै। व्यवहारोमे प्रत्येक जातिक प्रत्येक गृहस्थक लेल श्राद्धक विधान भेल अछि। यद्यपि मध्यकालमे श्राद्धक स्वरूपमे किंचित् विस्तार भेल अछि।

एहि तीनू सूक्तक अधिकांश मन्त्र वर्तमान श्राद्ध-पद्धतिमे उपलब्ध अछि। एहि तीनू सूक्तकें मूल रूपमे पढलासँ एकर महत्त्व स्पष्ट होएत आ आर्यसमाजक द्वारा कएल गेल श्राद्धक मजाक उड़एबाक बात स्पष्ट भए जाएत।

वास्तवमे दयानन्द सरस्वती अपन ऋग्वेदक अनुवादमे सभटा उलट-फेर कएने छथि। एकहि सूक्तमे यम शब्दक अर्थ कतहु ईश्वर कहैत छथि, तँ कतहु नियन्ता कहैत छथि, कतहु इन्द्रियकें वशमे केनिहार लिखैत छथि। एहि प्रकारें अनवस्था छनि। संगहि यम शब्दक जे अर्थ परवर्ती पौराणिक कालमे हमरालोकनि देखैत छी ओएह रूप ऋग्वेदोमे मानव उचित थीक। दयानन्द सरस्वती जें कि ऋग्वेदमे सेहो एकेश्वरवाद देखैत छथि आ मन्त्र-ब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् के खण्डन कए ब्राह्मण भागकें महत्त्वहीन मानि नेने छथि तें ई सभटा भ्रम भेल छनि। एतए हमरालोकनिकें देखबाक चाही जे सायण आदि जे प्राचीन भाष्यकार भेल छथि हुनक व्याख्याकें प्रामाणिक मानी। कारण जे ओ लोकनि भारतक परम्पराकें बड लग सँ देखने रहथि।

ऋग्वेदक पितृ-सूक्त आ यम-सूक्त हिन्दी अनुवादक संग, धर्मायण, पटना, अंकसंख्या- 87 (पढबाक लेल एतए दबाउ)>>

पौराणिक साहित्यमे रुचिस्तव पितृकर्मक महत्त्व पर पूर्णतः प्रकाश दैत अछि। श्राद्धकालमे एकर पाठ सेहो विशेष फल दायक होइत छैक। एहि कथामे पितरक आशीर्वादसँ रुचि नामक व्यक्तिक उन्नतिक कथाकें बड़ मार्मिक ढंग सँ कहल गेल अछि।

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